Submitted by Nidhi
महक (छोटे सरकार) और खेमू एक ही दिन जन्मे थे। महक राज महल के अंदर और खेमू महल के बाहर। परंतु महक के पिता राजा जयसिंह ने अपने महामंत्री के बेटे खेमू और अपने पुत्र में कोई अंतर नहीं समझा क्योंकि महामंत्री बहुत ईमानदार व्यक्ति थे और यूं भी कहा जा सकता है कि वह उस राजमहल की शान और जान थे।
महक और खेमू एक से माहौल में पल रहे थे। समय के साथ साथ उनकी दोस्ती भी गहरी होती गई। परंतु आर्थिक रूप से अलग-अलग इंसानों की अच्छे रिश्ते में बंधी गाँठ समय को ज्यादा गंवारा ना थी। किसी काम से महामंत्री को अपने गांव लौटना पड़ा और साथ में परिवार को भी, खेमू नौ वर्ष का हो चुका था।
अब विरह की घड़ी में, दोनों का इतने वर्षों से प्यार, आंखों के रास्ते उमड़ आया। समय में एक बड़ा मोड़ आया जिसके कारण न खेमू महक को देख पाया और न ही महक खेमू को। लेकिन अटूट यादें शायद हमेशा के लिए जिंदा रह गई। अभी इतना ही नहीं, गांव में खेमू के पिता की ज़मीन गांव वालों ने आपस में ज़ब्त कर ली और उनके परिवार के हालात दिन-प्रतिदिन दयनीय होते चले गए।
यह बात अलग थी कि यह दयनीय दशा, दूसरे गांव वालों को नहीं दिख रही थी या वो देखना नहीं चाहते थे। खेमू के पिता के मन में एक बार आया भी कि राजमहल जाकर राजा से सब कुछ बता दूं तो वह मदद तो करेंगे ही। पर न जाने शायद स्वाभिमान ने यह कहकर कदम थाम लिए कि मदद करना न भी चाहें तो कह नहीं पाएंगे।
“आखिरकार ‘महामंत्री’ का पद जो बहुत ईमानदारी से संभाला था। तो शायद आज उसकी कीमत चाहते होंगें।”
बस फिर क्या था, समय के थपेड़ों ने खेमू को अनाथ बना दिया और उसे अपनी हर छोटी से छोटी जरूरतों के लिए दूसरों के हाथों का मोहताज होना पड़ा। पर बचपन से जिसे हर चीज मांगने से पहले मिल जाती थी, वह यह स्थिति कैसे सहन कर सकता था।
फिर क्या था, घी टेढ़ी उंगली से निकलना ही पड़ा। जो इज्जत सही ढंग से नहीं मिल रही थी वह अब डर के मारे लोगों को देनी पड़ती थी। खेमू के निकलते ही लोग गलत काम बंद कर देते थे। वो गुंडा जरूर कहलाता था परंतु हालत के कारण, हां उसके चेहरे पर से मासूमियत समय से पहले छिन चुकी थी पर इंसानियत उसमें अब भी जिंदा थी।
शायद एक चीज जो हमेशा उसे खलती रहती थी वह थी एक इज्जत पाना और सम्मान की जिंदगी जीना। पर अब उसने ऐसे मौके की तलाश छोड़ दी थी। बचपन की कुछ भूली- बिसरी यादें उसके चेहरे पर मुस्कुराहट कभी-कभी ले आती थी।
आज पूरे रसलाम गांव में अजीब सी दहशत की बू सी आ रही थी। खेमू दो दिन बाद लौट रहा था। किसी जरूरी काम से शहर गया था, आकर उसने एक नज़र चारों तरफ घुमाई, कोई मुंह से कुछ नहीं बोल रहा था।
सबने एक बार नज़र मिलाकर नज़र चुराने की कोशिश की। खेमू सीधे पान वाले के खोखे पर पहुंचा, जहां उसका कभी दिन तो कभी रात गुजरती थी। वो बोला “का रे , काहे अपने चौखटे इतने खूबसूरत बनाए रखे हो, का हुई गवा, कोई कछु बोल काहे नहीं रहा है?
पूछने पर पान वाले की आंखों में हल्की सी शर्मिंदगी, लाचारी और डर था। उसके हाथ पान लगाते-लगाते रुक गए, होंठ कांपने लगे। आंखें जैसे अभी छलक पड़ेगी, खेमू का जैसे सब्र का बांध टूटने को हो रहा था। वो बोला “का औरतों की तरह होंठ कंपकपा रहे हो। हम अईसा झापड़ रसीद करेंगे, समेत खोखे के घूम जाओगे”।
ये सुनकर फटाफट पान लगाकर, खेमू को देते हुए वो बोला, मालिक, ” ऊ जो अपनी कजरी हई न……..उ…उ… उसे, हां का हुआ उसे? सहर से ठाकुर के आदमी उसे उठाकर ले गए, अब तक तो सहर पहुंच गए होंगे। ये सुनकर खेमू आग बबूला हो उठा और बोला
“अरे खुद को बहुत इज्जतदार समझने वालों, तोहार आंखों के आगे से तोहार बहन को ले गए और तुम चूड़ियां पहिने बैठे थे का? तुम लोगों को हम बाद में देख लेंगे”।
यह कहकर खेमू अपने कुछ साथियों समेत शहर पहुंच गया। ये कुछ भूला-बिसरा याद कर रहा था, घोड़े कीे टापें महल के अंदर गूंजने लगी। खेमू पर तो जैसे खून सवार था। वहां पहुंचते ही कजरी और जोर-जोर से चीखने और चिल्लाने लगी। ठाकुर कंचे जैसी आंखें फाड़कर खेमू को देखने लगा और उसे बाहर जाने को कहा।
हेमू ने एक बनारसी झापड़ मारा और ठाकुर एक फुट दूर जाकर सँभला, खेमू का गुस्सा भांपकर, ठाकुर ने अपने आदमियों से कजरी को छोड़ देने के लिए कहा। जैसे ही खेमू कजरी को ले जाने लगा, ठाकुर ने पीछे से बंदूक चला दी। पर ईश्वर की दया से गोली बाजू से टकराई। अब तो ठाकुर की खैर नहीं थी, खेमू खूखरी निकालकर जैसे ही आगे बढ़ा, ठाकुर का आदमी पीछे से चिल्लाया, छोटे सरकार, बचो और भाग लो, राजा जयसिंह आ रहे हैं।
ये सुनते ही खेमू के आगे सारी पुरानी यादें एकाएक ताजा हो गई और वह चिल्ला पड़ा, महक, ये सुनते ही महक पीछे मुड़ा और अचंभित होकर खेमू को देखा। दोनों को एक दूसरे की हालत और हालात पर विश्वास नहीं हो रहा था। खेमू तो जैसे यह सच्चाई सहन नहीं करना चाहता था उसकी आंखें झलक उठी, महक अपनी हरकत पर शर्मिंदा था।
इतने में जयसिंह वहां आ पहुंचे, पर खेमू भी अपने पिता की भांति स्वाभिमानी था। उसने अपना मुंह ढक लिया और कजरी को लेकर वहां से जाने लगा। राजा की कुछ समझ में नहीं आया। खेमू का रसलाम पहुंचते ही स्वागत हुआ। उसे अपना दोस्त वापिस नहीं मिल पाया। पर जो गांव उसका होकर भी पराया लगता था, वह उसे वापस मिल गया था, वो भी पूरे सम्मान के साथ।
अब खेमू गुंडा नहीं रह गया था। आज वह गाने गाए जा रहा था और पान की दुकान पर बैठा था। पानवाला बोला, “वाह,! खेमू भईया, तोहार दोस्त तो महल में रहिने पर भी अच्छा नहीं बना और तुम तो अपनी दादागिरी के बल पर सबका बिसबास जीत लिए हो”।
अरे बुद्धू हर एक इंसान के भीतर दुई किस्म के भेड़िए होत राही, एक अच्छा और एक बुरा। जो ज्यादा ताकत वाला होवत है उ जीत जाई है और हमरे ऊपर हावी होने की कोशिश करत है। पान वाले ने पूछा,”कौन सा सफल रहत रहे”।
“जोउन से को हम ज्यादा खाना खिलात ह रहे।” मतलबी ई कि महक सरकार बुरे को खिलावत रहे तो उनकी बुराई जीत गई और तुम अच्छे को खिलावत रहे तो ईहां अच्छाई जीत गई और तुम सफल हो लिए। हां, ठहाका लगाकर खेमू पान खाने लगा।