मेरा सफर आसान नहीं रहा है। मुझे मालूम है कि यह कोई नयी बात नहीं क्योकि हर व्यक्ति यही बात दोहराता है। लोगो ने समझाया कि हंसना सेहत के लिए जरूरी होता है लेकिन वे लोग यह बताना भूल गए कि झूठा हंसना हमारी सेहत के लिए उतना ही खतरनाक होता है। सेहत ज़हनी सुकून से आती है – क्यों बताना भूल जाते है यह लोग?
खिलखिलाते चेहरों को देखकर आज मुझे भी लगता है कि क्या यह लोग भी मेरे जैसे बस हंस ही रहे है? क्या कही यह लोग भी ज़ेहनी बीमार तो नहीं है? मैं सिर्फ लोगो को खुश करती रही हूँ, खुद को हर रोज़ मारकर – फिर भी कैसे हंस लेती थी मैं? हैरान हूँ !!!
एक हर रोज़ खुद को मारता आदमी, दुनिया के सामने अपने चेहरे पर लालिमा पोत कर, चेहरे पर झूठी मुस्कान का लबादा ओढ़कर, कितनी होशियारी से दुनिया का सामना करता है? हैरान हूँ अपने उस हुनर पर!!!
अगर किसी दिन चेहरे पर मेकअप का झूठा आवरण ना हो तो खुद की सखी सहेलिया मुझे सजने के फायदे गिना दिया करती थी। अगर मैं बस शांत यूँ ही किसी कोने में बैठ जाती तो मेरी तहजीब पर सवाल उठा दिए जाते। किसी से थोड़ा ज़ोर से, चिल्ला कर अपना विचार बोल देती तो मेरी शिक्षा और संस्कार का हवाला देकर मुझे खामोश कर देते।
मैं हर रोज़ कई बार मरती, फिर सांसो के शोर को सुनकर लगता कि अरे मरी तो नहीं हूँ मै। नहीं समझ आया कि मुझमे क्या मरता था हर रोज़। ख्वाब देखती, उन्हें पूरा करने के लिए लड़ती – सबसे पहले खुद से, और जब थोड़ी सी हिम्मत जुटा लेती तो रसोई के बर्तन, सब्जी और रोटी बनाने का समय मुझे बेदर्दी से आवाज़ लगा देता और पता है मैं फिर उन बर्तनो से लड़ती। लोग समझते कि मैं बड़ी जल्दी और तेजी से काम करती हूँ – उन्हें क्या पता कि बहुत लड़कर मेरी जिस आत्मा को जिन्दा किया है, उसके फिर मरने से पहले मुझे मेरा काम निपटाना होता था।
रात को बिस्तर पर जाकर जब भी मेरे ख्वाबो के लिए मैं प्रयास करती तो मुझे याद आता मेरे जिस्म का मालिक मेरा पति – जो देखता था मेरी और किसी आस में या क्या जाने किसी प्यास में? क्या करती – नहीं जाती तो गुनहगार हो जाती और जाती तो मेरे खुद के ख्वाबो कि तलबगार हो जाती। तलबगार ही रही, गुनहगार बनकर मैं !!!
घर से बाहर जाती तो लोगो कि निगाहों के तीरो से रुंध दी जाती, छुप कर रहती तो उसी अँधेरे में बांध दी जाती। ना कभी हंसी समझ आयी, ना कभी खामोशी समझ आयी। बस इतना ही समझ पाई कि मैं एक साधन हूँ जिसका काम बस काम है जो करना ही होगा मुझे अपनों कि ख़ुशी कि खातिर। और उस दौर में उसे ही ज़िन्दगी समझ बैठी थी मैं, सच में कितनी बेवक़ूफ़ थी मैं ? और क्या पता आज भी हूँ , जब जानती हूँ उस झूठ को जो मैंने जीया है अपनी आधी उम्र तक –
हम कैसी मझदार में फंसे
जो पास है उस के पास होकर भी पास नही
जो दूर है उससे दूर होकर भी दूर नही
जिसको प्यार जताते है उससे प्यार सच्चा नही
जिसको नहीं जताते है उससे प्यार की कोई सीमा नहीं
जिन्दगी मे दो रास्ते क्यों होते है
एक रास्ता भी हसीन हो सकता है
ए खुदा
जिन्दगी में एक रास्ता बनाता
जो सिर्फ प्यार तक जाता
चल पड़ते हंसते हंसते
चाहे रास्ते में शोले बिछे होते
फूल की चाह न थी
चाह तो एक थी
माँगा तो सिर्फ एक को था
दो राहों को नही
हम कैसी मझधार में फंसे