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रामानंद जी चांग वाले का जीवन रेखाचित्र

“यह कोरा कागज़ देख रहे हो, तुम्हे इस कागज़ की तरह बनना होगा|” श्री गुरु महाराज ने यह शब्द मुझे उनकी कुटिया में कहे| मैं गुरु दीक्षा के लिए सुबह ही आश्रम में पहुंच गया था, लेकिन यह सफर मेरे लिए ज़रा भी आसान नहीं था| आज भी मैं अगर श्री गुरु महाराज जी के चेहरे को याद करता हूँ तो कही खो जाता हूँ क्योकि उनका चेहरा एक अदम्य तेज और उनकी ध्यान साधना से आपूरित था| उनके पूछे प्रश्न पर हामी देने के बाद मुझे और दो अन्य व्यक्तिओं को गुरु दीक्षा मिली| एक कोरे कागज़ की तरह होना इतना सरल नहीं रहा जितना सरल मेरा कह देना मात्र था| हम इस संसार में अनेक वासनाओ से लिप्त रहते है और दम्भ भरते है खुद को साधक और सच्चा शिष्य कहने का – शायद आज मुझमे ज़रा सा भी संकोज़ नहीं है यह स्वीकार करने में की मुझमे अनेक कमी होते हुए भी श्री गुरु महाराज जी ने मुझे गुरु नाम दीक्षा दी| (25/03/1999)

आश्रम से जुड़ना मेरे पिता श्री कृष्ण कुमार जी की वजह से संभव हो पाया, मेरे पिता जी को गुरु महाराज मैनेजर साहेब के नाम के पुकारते थे| मेरे पिता जी का आश्रम से जुड़ना 1995 में हुआ| मुझे और समस्त आश्रम को पता है की किस तरह गुरु जी की सिर्फ एक नज़र ने मेरे पिता जी के सारे व्यसन जैसे सिगरेट, शराब छुड़वा दिए थे|

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आज से तक़रीबन 28 साल पहले आश्रम में एक सत्संग भवन के अतिरिक्त कुछ 2 या 3 कमरे ही होते थे और सत्संग भी रात के समय होता था| पूरी रात शब्द बानी का गायन चलता था| मुझे याद है उस समय मैं क्लास 10 में पढता था और मेरे लिए पूरी रात जागना बहुत मुश्किल से भरा होता था इसलिए मैं जल्दी ही सो जाता था| जब श्री गुरु महाराज जी अपनी बानी शुरू करते, मुझे मेरे पिता जी नींद से जगा देते थे और मैं तनिक संकोच भी न करते हुए जाग जाता था, श्री गुरु महाराज जी का कंठ इतना मधुर होता था की सभी मौजूद भगत कही खो जाते थे| उनकी बानी में कबीर, रविदास, नानक और अनेक अन्य संतो की बानी होती थी| उस समय सभी मौजूद साध संगत को भोजन आश्रम की तरफ से ही दिया जाता था| आर्थिक रूप से यह आश्रम पर भारी पड़ता था पर फिर भी श्री गुरु महाराज जी ने इस विषय पर कोई चिंता नहीं की| हर आश्रम मेंआने वाले व्यक्ति को चाय और भोजन करवाया जाता था| वह कहते थे –

देने वाला देत हैंदेवत हैं दिन रैन

लोग भरम हम पर करततासो नीचे नैन

उस समय मेरे पिता जी ने श्री गुरु महाराज के सामने एक विचार रखा था की क्यों ना आश्रम में आने वाली संगत में से हर महीने कोई एक साधक भंडारा दे| इसके बाद इस विषय पर श्री गुरु महाराज जी ने एक कथा सुनाई – “एक बार एक साधक अपने पुत्र को आश्रम लेकर आया जिसकी कही नौकरी लगी थी, उसका पुत्र हमसे बोला की महाराज जी यह मेरी कमाई का पैसा है आपको देने आया हूँ| हमने कहा की किसका पैसा है? उसने कहा की मेरा पैसा है, मेरी कमाई का पैसा है, तो हमने उससे कहा की जब यह पैसा तेरा ही है तो हम इसका क्या करेंगे| दान देना वही है जब एक हाथ से दिया गया दान दूसरे हाथ को भी पता ना लगे|”

श्री गुरु महाराज जी के द्वारा कही गयी बात का सार सभी समझ गए और उस दिन के लेकर आज तक आश्रम में यह हर महीने भंडारा कोई ना कोई साधक देता है| किसी के मन में ज़रा सा भी अहंकार नहीं होता जब वह अपनी नेक कमाई में से आश्रम में अपनी सेवा देता है| श्री गुरु महाराज जी हमेशा कहते थे –

मात पिता मिल जायेगे, लाख चौरासी माहि

सेवा, सिमरन और बंदगी; फेर मिलन की नाही|

II

जैसे जैसे श्री गुरु महाराज की बानी की ख्याति बड़ी, आश्रम में आने वाली संगत में भी तेजी से बढ़ोतरी होने लगी, आश्रम में बैठने की जगह अब थोड़ी पड़ने लग गयी थी| श्री गुरु महाराज जी ने सबसे पहले सत्संग हॉल और भंडार गृह बनाने की दिशा में कार्य शुरू किया| उस समय श्री महाराज जी ने अचानक से कैसेट रिकॉर्डिंग हेतु विभिन कैसेट रिकॉर्डिंग स्टूडियो जैसे मैना, चीता, जगदीश और टी-सीरीज में अपनी बानी रिकॉर्ड करवानी शुरू कर दी थी| इसके साथ साथ उन्होंने विभिन जगह सत्संग प्रोग्राम भी करने शुरू कर दिए थे| उनकी बानी धीरे धीरे हरियाणा से बाहर के राज्यों में भी अपना असर छोड़ रही थी| लोग आश्रम में उनका सानिध्य प्राप्त करने हेतु आना शुरू हो चुके थे| जो भी आश्रम में आता, उनके संतत्व से अभीभूत होकर आश्रम का ही हो जाता था| हमने अपनी आँखों से बहुत ही थोड़े समय में एक छोटे से सत्संग हॉल का विस्तार होते देखा है| सभी संगत से जुड़े हुए जन और स्वयं श्री गुरु महाराज जी ने अपने हाथों से कर सेवा करते हुए सबसे पहले सत्संग भवन और उसके ऊपर कुछ कमरों का निर्माण करवाया|

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Sri Ramanand Ji

उस समय सत्संग के बाद भोजन श्री गुरु महाराज जी की कुटिया के बाहर खुले में टाट-पट्टी बिछा कर करवाया जाता था| मौसम ख़राब होने पर या ज्यादा गर्मी होने पर बहुत समस्या हो जाती थी| आश्रम में संगत भी बढ़ रही थी तो स्वाभाविक था की एक भोजन के लिए हॉल का भी निर्माण करवाया जाये| मुझे आज भी याद है की एक सत्संग में संगत भोजन कर रही थी और मैं भोजन की सेवा में लगा था| उस समय भोजन के बाद संगत झूठी थाली को उठा कर पास ही संगत सेविकाए जो बर्तन साफ़ करती थी, वहाँ उस थाली को रखते थे| एक संगत जन ने भोजन उपरांत अपनी झूठी थाली वही छोड़ दी, और उस थाली को देख कर श्री गुरु महाराज जी ने आवाज़ लगाई की कोई उस थाली को वहां से उठा ले, लेकिन तक़रीबन 3-4 आवाज़ लगाने के बाद भी कोई नहीं आया| मैं वही खड़ा हुआ सब देख रहा था; मेरे हाथ में रोटी की थाली थी, फिर भी मैंने अचानक से उस थाली को उठा लिया| तभी श्री गुरु महाराज जी ने मेरे हाथों से रोटी की थाली ले ली और मुझे सेवा से बाहर जाने का आदेश दिया और बड़ी सख्ती से कहा की तुम्हे ज़रा सा भी बोध है तुम क्या कर रहे थे| सेवा करनी नहीं आती तो करते ही क्यों हो| मैं सच में नहीं समझ पाया की हो क्या रहा है? मैं सच में बड़ा आहत महसूस कर रहा था जब गुरु जी के बार बार बोलने पर भी कोई नहीं आ रहा था| मुझसे रुका नहीं गया और मैंने उक्त कार्य कर दिया| मुझे गुरु दीक्षा मिलने से तक़रीबन 1 वर्ष पहले 1998 की यह घटना है| गुरु आदेश लेकर में वहां से सत्संग हॉल में चला गया और वही बैठ गया| मैं सोच रहा था की आखिर मेरे से गलती क्या हुई है? जो संगत जन भोजन करने के बाद सत्संग हॉल में आ रहे थे, वह भी मुझ पर तीखी टिपण्णी कर रहे थे लेकिन बता कोई नहीं रहा था की आखिर बात क्या है| मैं भी वही बैठा रहा, मैंने भोजन भी नहीं किया| भोजन के उपरांत श्री गुरु महाराज जी सत्संग हॉल में आये और उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा –

अजय तु यह सोच रहा होगा की आखिर तुझसे गलती क्या हुई है, (निसंदेह वह सही थे) तुम लोग शहर में रहते हो, बड़े स्कूलों में पढ़ते हो, लेकिन सीखते नहीं हो| गुरबाणी में भी भोजन का अंग आता है जिसमे बताया है की यह शरीर भौतिक शरीर है और भोजन से इसका निर्माण होता है| शरीर से साधना संभव है| इसलिए भोजन की शुद्धि आपकी चेतना की शुद्धि है| झूठे बर्तन सुचे हाथों से उठा कर हम अशुद्धि की तरफ जा रहे है| अजय यह तो अपने घर की बात है, बाहर यह हरकत करते तो जाने क्या क्या सुनना पड़ता|”

आज उस घटना को करीब बीस साल हो चुके है| आज भोजन की शुद्धि मेरे व्यहार का हिस्सा बन चुका है| अगले सत्संग कार्यक्रम में जब मैं गया तो गुरु जी ने कहा की अजय तु आ गया, हम तो समझे की तु नहीं आएगा| मैंने कुछ नहीं कहा| उस सत्संग में भी मैंने भोजन की सेवा की और बहुत से लोगो की तीखी निगहाओं का पात्र भी बना| उस दिन मुझे याद है की बर्तन मांजने से लेकर, सत्संग हॉल का झाड़ू पोछा भी मैंने कर दिया | सत्संग के बाद जब मैंने जाने की इजाजत मांगी तो गुरु जी ने कहा की भाई आज तो तुमने बहुत सेवा की है| उस समय वह लोग भी वह मौजूद थे जो मुझ पर टिपण्णी कर चुके थे| श्री गुरु महाराज जी ने अपने डिब्बे में से विशेष तौर से मुझे मिश्री का प्रसाद देकर और बहुत आशीर्वाद देकर मुझे जाने की इजाजत दी|

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