जीवन के विरोधाभासो के मध्य सत्य कही दूर सूरज की तरह चमकता रहता है और हम अन्धो की भांति उस अद्वितीय रोशनी को इंकार करने की तरकीबे खोजते रहते हैं। क्या जीवन ऐसे जीया जा सकता है जहाँ हम स्वयं को हर रोज़ एक नया धोखा दिए चले जाते है?
परम मौन के साथ मेरा छोटा सा अनुभव यही रहा है की शब्द व्यर्थ है परन्तु इन्ही शब्दों में ही हम उसको खोजते है जो शायद इन शब्दों की परिधि में कही नहीं हैं। कई बार बेवजह के फसाद इन्ही शब्दों के कारण हो जाते है तो बहुत बार उन्ही शब्दों में सुलह के बीज भी अंकुरित हो जाते है।
असल में शब्द से दी गयी शिक्षा का परम लक्ष्य जीवन को परम मौन से भर देने का है। परन्तु सिवाय इस जगत में उपद्रव के हमे कुछ नज़र नहीं आता है। लक्ष्य से विहीन जीवन हमे व्यर्थ नज़र आता है परन्तु गौर से देखता हूँ तो लगता है कि इस विराट अस्तितव के होने का कोई भी लक्ष्य नहीं, इसका होना ही पर्याप्त है।
हम जीवन जिये चले जाते हैं – तमाम उम्र पीछा करते हैं उस मृगतृष्णा का, जो इस सृष्टि कि एक ऐसी कृति हैं जो सदा अप्राप्य हैं।
नशे को खोज कर पाया, कि मैं उसको खो गया
जिसको खोजने की ज़िद में, नशे कि ज़द में मैं आया
चले थे हौसला करके, कि तुझको पा ही लेंगे हम
सांसे चूक गयी मेरी, समझ अब तलक नहीं आया
किसको खोजने की ज़िद में, नशे कि ज़द में मैं आया?
भागते हैं, दौड़ते हैं – मिलता कुछ भी नही।