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एक खामोश रात : ज़िन्दगी के कुछ अनछुए पहलू

जिंदगी के सफर में कई बार इस तरह के मुकाम आते हैं जब इंसान की सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो जाती है ऐसा ही एक वाकया मेरी जिंदगी में भी हुआ। बात उस समय की है जब मैं अपनी स्नातकोत्तर डिग्री गुरु जंभेश्वर यूनिवर्सिटी से कर रही थी। डिग्री के दौरान हमारा एक विषय होता था जिसमें विद्यार्थी को एक चयनित विषय पर रिसर्च करने के बाद अपने मार्गदर्शक (बी. के. कुठियाला) के सानिध्य में विश्वविद्यालय में रिसर्च जमा करवानी पड़ती थी। इसी सिलसिले में मुझे अपनी रिसर्च टाइप करवाने के लिए कैंपस से बाहर जाना था जिसके लिए आसानी से अनुमति नहीं मिली । जैसे तैसे मैंने होस्टल की वार्डन वंदना पांडेय मैम को एक एप्लीकेशन लिखी और कहा कि मैं अपने घर जा रही हूं। जबकि असलियत में मैं अपनी रिसर्च टाइप करवाने के लिए कैंपस में ही एक आंटी के घर जा रही थी। जिन्होंने अपने घर में ही कंप्यूटर टाइपिंग के लिए कंप्यूटर रखा हुआ था कम्प्यूटर पर इंग्लिश और हिंदी दोनों तरह की टाइपिंग की सुविधा थी। एक तय समय सीमा के अंतर्गत सभी विद्यार्थियों को अपनी रिसर्च जमा करवानी थी। अगला दिन रिसर्च जमा करवाने का आखिरी दिन था। आनन-फानन में मैंने सभी तरह के पैंतरे अपनाकर हॉस्टल से बाहर कदम रखा और उस आंटी के घर जा धमकी। रिसर्च काफी लंबी थी इसीलिए मुझे उस आंटी के घर रुकना पड़ा क्योंकि वह पहले से ही किसी और की रिसर्च टाइप कर रही थी। मेरे बहुत आग्रह के बाद भी उन्होंने रिसर्च टाइप नहीं की। अमूमन ये इल्म तो मुझे पहले ही था कि महिलाओं की जिंदगी में घर का काम सर्वोपरि है बाद में कुछ और। उन्होंने कहा कि मैं पहले खाना तैयार करूंगी, उसके बाद ही आपका रिसर्च का काम करूंगी।

मेरे पास सिवाय इंतजार करने के कोई चारा नहीं था। बातचीत करने में मैं बहुत ज्यादा विश्वास नहीं रखती थी इसीलिए अपनी रिसर्च को ही चैक करना मैंने जरूरी समझा। थोड़ी देर बाद खाना बनाने के बाद उन्होंने मुझे टेबल पर बुलाया और खाना परोसा। मुझे सिर्फ एक ही बात की जल्दी थी कि खाना खाकर जल्दी से मेरा काम शुरू हो। लेकिन फिर भी ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि वह घर के ही किसी अन्य काम में व्यस्त हो गई । बेवक्त चिंता ना करते हुए मैंने खुद को अपनी किताब में मशगूल रखा। काम खत्म होने के बाद आंटी जी मेरे पास आए और उन्होंने रिसर्च का काम करने के लिए कहा। मैं खुश थी कि आखिरकार मेरे काम को तवज्जो तो मिली।

थोड़ा ही काम करने के बाद उन्होंने कहा कि चलो सो जाते हैं ये सुनते ही मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। जिस काम के लिए मैंने इतना इंतजार किया वो अभी आधा भी नही हुआ था कि बात सोने की होने लगी। लेकिन मैंने भी ठान ली थी कि अपना काम पूरा हुए बगैर मैं नही सोऊंगी। भूत की तरह मैं उनको चिपक गयी। बहरहाल मेरी जिद के आगे उनकी एक न चली और उन्होंने मेरा रिसर्च का काम पूरा किया। अपने शोध के काम का निरीक्षण करने के बाद मैं भी सोने के लिए तैयार हो गई। अब मेरा दिमाग सोने के लिए तैयार था। जैसे ही मैं लेटने की जगह पूछने के लिए आंटी के पास गई तभी अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। इस वक्त कौन हो सकता है ये प्रश्न मेरे मन में कौंधा क्योंकि आंटी को देखकर लग नहीं रहा था कि वो किसी का इंतजार कर रहीं हैं। वो तो सोने वाले थी वह भी निश्चिंत होकर। कमाल तो तब हुआ जब उन्होंने दरवाजा खोला, मुस्कुराई और उस व्यक्ति के हाथों से सामान लेकर अंदर चली गई।

मेरे दिमाग में प्रश्नों का अंबार था मैं सोच रही थी कि इस वक़्त यह कौन हो सकता है। थोड़ी देर बाद आंटी के हाव भाव और मिजाज से पता चला कि वह उनके पति देव थे, जिन्हें खाना परोसकर वह सोने की तैयारी में थी। तब मालूम हुआ कि वह इतनी निश्चिंत क्यों थी। । उन्होंने मुझे कहा कि ड्राइंग रूम के साइड वाले कमरे में जाकर सो जाओ जबकि ड्राइंग रूम के साइड में दो कमरे थे। एक अंदर की तरफ और एक बाहर की तरफ। दोनों ही कमरों का रास्ता ड्राइंग रूम से होकर गुजरता था। घर की लोकेशन कुछ इस तरह थी कि मुख्य द्वार के सामने दो दरवाजे थे जिसमें से एक दरवाजा ड्रॉइंग रूम का था और दूसरा उनके बेडरूम का। बेडरूम के साथ लगते हुए एक दूसरा रूम था जिसमें मुझे सोने के लिए कहा गया था। कहने का तात्पर्य यह है दोनों कमरों की दीवार ड्राइंग रूम से सटी हुई थी और बाहर वाले कमरे का एक दरवाजा मुख्य द्वार की तरफ था और दूसरा अंदर वाले कमरे की तरफ जहां मुझे सोने के लिए कहा गया था। मैं उस कमरे में गयी। वहां मुझे कुछ अजीब सा लगा उस कमरे में बिछी चारपाई पर मुझे सोना था। कमरे की चारदीवारी पर अलग-अलग तरह की तस्वीरें टंगी हुई थी। तस्वीरें बहुत ही पुरानी और कमरा भी बहुत पुराना मालूम पड़ रहा था जबकि उनका खुद का कमरा बहुत ही शानदार था। हैरानी की बात यह थी कि मुझे स्टोर रूम टाइप के कमरे में मुझे सुला दिया गया।

सोने से पहले गुरु का नाम स्मरण करना मेरी आदत बन गई थी। लेकिन उस दिन कुछ अजीब ही हुआ जाने मैं ढंग से गुरु का नाम ही नहीं ले पायी। उस कमरे का माहौल मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा था।एक अजीब सी बेचैनी थी जो मुझे घेरे हुए थी। अमूमन कमरे की दीवारों को ताकती हुई मैं कब सो गयी, पता ही नहीं चला। अचानक मेरी आंख खुली सामने दीवार पर घड़ी थी जिसमें 12:00 बजे हुए थे नींद से जगते ही मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे कि मैं सोई ही नहीं थी। मेरी आंखें तो तब फटी की फटी रह गई जब मेरी ही आंखों के सामने वह दीवार घड़ी गायब हो गई। एक एक करके उस कमरे की सारी तस्वीरें गायब होने लगी और देखते ही देखते मकान इंटों के एक कमरे में बदल गया। मेरी हालत तब और भी खस्ता हो गई जब वो रही सही इंटे भी गायब होने लगी और मैंने खुद को एक घने जंगल के बीच चारपाई पर लेटे हुए पाया और कमरे में लगा पंखा ऊपर आसमान में झूलकर मुझे हवा कर रहा था। मुझ में कुछ भी बाकी नहीं रह गया था। मैं पसीने में तरबतर हो चुकी थी। मेरे दिल की धड़कन धीरे-धीरे करके खत्म होती जा रही थी। इसीलिए मैंने जोर से चारपाई को पकड़ा और अपनी सांसे जुटाने की कोशिश की। बहुत कोशिशों के बावजूद भी मैं खुद को संभाल नहीं पा रही थी। थोड़ी ही देर में मुझे एक आहट सुनाई दी मुझे लगा जैसे कि मेरे पीछे धीरे-धीरे कोई आ रहा है। लेकिन मैं खुद को चारपाई पर इस तरह जकड़ा हुआ महसूस कर रही थी कि मैं गर्दन तक नहीं हिला सकी। कुछ मैं इतना डरी हुई थी कि पीछे देखने की हिम्मत भी नहीं थी। चारपाई पर लेटे लेटे मैंने अपनी आंखों को पीछे की तरफ तरेरा और देखने की कोशिश की।

मैंने जो नजारा देखा उसके बाद तो मुझे लग रहा था कि अभी के अभी धरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊं।मैं अपनी अंतिम सांस गिरने को मजबूर थी। इससे पहले भी मैने अपनी जिंदगी में बहुत से अनोखे लम्हे अनुभव किये थे लेकिन ये उनमे से सबसे अलग और जहरीला था। मैंने देखा कि अंकल और आंटी मेरे सिर के ठीक पीछे खड़े हैं । वो मेरे चेहरे पर आए पसीने को हटाने की कोशिश करने के लिए हाथ आगे बढ़ा रहे थे और मुझे पंखा भी झूल रहे थे । यह देखते ही मैंने खुद को उन से बचाने के लिए आंखें बंद करने की कोशिश की ठीक वैसे ही जैसे एक बिल्ली आने पर एक कबूतर अपनी आंखें बंद कर लेता है । आंखें बंद करते ही मुझे अपने गुरु कन्हैया नाथ जी की याद हो आई और मैंने जोर से उनका नाम लिया। अपने गले में पहनी उनकी माला पर हाथ रखा। माला पर हाथ रखते ही जैसे मैं वहां से गायब ही हो गई और जब मेरी आंख खुली तो सुबह हो चुकी थी। मैंने आंटी को जल्दी से मेरी रिसर्च के सभी पेज देने को कहा। उन्होंने स्वयं ही जल्दी उठकर मेरी फ़ाइल के सारे प्रिंट आउट निकाल दिए थे। मैने अपना सामान लिया और वहां से निकल गयी। इसके बाद मैं अपने मकसद में कामयाब हुई। समय रहते मैंने अपना शोध कार्य अपने विभाग में जमा करवा दिया।

शाम को एक ऐसा वक़्त होता था जिसमे मैं और मेरा गैंग पूरे दिन की दिनचर्या का वर्णन करते थे। लेकिन उस दिन केवल मैं और नीलम थी। इत्तेफ़ाक़न उसने शोध से संबंधित बात का ही जिक्र कर दिया। खासकर उसने जब पूछा कि आंटी के घर नींद आ गयी थी। तो मुझे बीती रात के बारे में कुछ भी याद नहीं था। बहुत कोशिशों के बाद मुझे याद आया कि मेरे साथ क्या हुआ था। मुझे खुद पर ही इतना अचंभा हुआ। हे भगवान वो रात मैं कैसे भूल सकती हूं। आख़िरकार मुझे पूरा सीन याद आया

सुबह होने के बाद मुझे सहज बोध हुआ कि जैसे इस घर में बहुत साल पहले एक लड़के की मौत हो चुकी है। अब आंटी और अंकल दोनों अकेले ही रहते थे घर में जैसे मायूसी पसरी हुई थी। लेकिन हैरानी मुझे इस बात की थी कि उस लड़के की मौत के इतने सालों बाद मुझे ही क्यों इस तरह का एहसास हुआ। क्या आंटी और अंकल दोनों के साथ कभी ऐसा नहीं हुआ। इन सभी प्रश्नों के साथ मैंने अपने दिमाग की सभी नसों को आराम दिया और सोचा कि अगर नीलम मुझसे यह प्रश्न ना करती है तो शायद ही मुझे कभी यह वाकया याद आता।

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