इत्तेफाक की दहलीज़ के कदमों में समय की दूरी और लंबाई कितनी हो ये तो वक़्त की गिरफ्त में ही होता है, पर इत्तेफाक के कदमों की आहट घटना घटित होने से पहले ही शुरू हो जाती है। जिसका अंदेशा चाहे हमें हो या ना हो? मेरे पैदा होने के बाद की एक अनोखी घटना का मम्मी अक्सर जिक्र करती थी। मुझे सुबह उठते ही सिर में दर्द हो जाता था।
मम्मी हमेशा कहती, बेटा उठ और खाना खा ले, तू ठीक हो जाएगी। यही सत्य भी था। मैं हमेशा हैरान होती थी कि मम्मी को ये बात कैसे पता और मुझे पता क्यों नही थी? मम्मी मज़ाक बनाते हुए कहती कि शुक्र है अब चार बजे तो नही उठना पड़ता। मम्मी थोड़ा याद करती और हंस पड़ती। एक दिन मैंने पूछ ही लिया कि क्या हैं ये 4:00 बजे। बताओ क्या हुआ था चार बजे?
रात को सभी गहरी नींद में सोए हुए हैं। चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ हैं कि अचानक बहुत ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ से सब उठ जाते थे। जब तक मेरे मम्मी-पापा अंधेरे में मोमबत्ती और माचिस ढूंढ कर उसे जलाते, तब तक पड़ोसी भी पूछने के लिए आ जाते थे कि ये बच्ची इतनी क्यों रो रही हैं, वो भी सुबह सुबह चार बजे।
ठंड से भरी हुई सुबह में स्टोव जलाकर दूध गरम करना भी किसी आफत से कम नही था। पर इस तरह की बातें, मैं इतनी छोटी बच्ची, क्या जानूँ। जब तक मेरे मुंह में दूध की बोतल नही होती थी, तब तक ये घमासान जारी रहता था। इस तरह सुबह चार बजे अपने घर वालो को परेशान करने का सिलसिला कई महीनों तक चला।
इसीलिए मेरे मम्मी- पापा खुद ही सुबह चार बजे उठने लगे। कहते हैं, सुबह चार बजे उठकर भगवान का नाम लेना चाहिए और मेरे माँ-बाप सुबह उठकर मुझे दूध पिलाने का काम करते थे। उसके बाद से आज तक भी मेरे पापा जी सुबह चार बजे जरूर उठते हैं। बस यही से इत्तेफाक की दास्तान शुरू हुई।
मुझे बचपन से ही आसमान, तारे, बादल, बिजली, सूरज और सृष्टिरचयिता को जानने की उत्सुकता थी। सूरज के अंदर क्या छुपा हुआ है ये देखने के लिए मैं सूरज को घूरती थी। मेरी मम्मी बहुत मना करती थी पर मुझे हमेशा से जानना था कि प्रकृति की इन चीजों में क्या छुपा हुआ है इसीलिए मेरी चाहत इन सभी चीज़ों के प्रति आज भी उतनी ही है, जितनी पहले थी।
ऐसे बहुत सारे प्रश्न हैं जो मेरे मन में हमेशा घूमते रहते थे और उन प्रश्नों का जवाब ना तो मेरे पास था और ना ही मेरे आस-पास रहने वाले किसी भी व्यक्ति के पास था। जैसे हम कौन हैं, हम कहां से आए हैं, हम क्यों इस पृथ्वी पर आए हैं, ऐसा कौन सा काम था जो हमारे आये बगैर नहीं हो सकता था, जिसके लिए हमारा जन्म हुआ?
यह पृथ्वी क्यों है? सूरज इतना दूर क्यों है? इस सूरज के अंदर क्या है? यह चांद सफेद क्यों दिखाई देता है? यह हर रोज घटता बढ़ता क्यों है? हम हवा में क्यों नहीं उड़ रहे? आसमान में सितारे लटके क्यों हुए हैं, वह नीचे क्यों नहीं गिर जाते? जैसे हम चांद, सितारे और इस सूरज को देख पा रहे हैं तो क्या ऐसा कोई और भी है जो हमें दूर से देख पा रहा है? क्या किसी और को भी पृथ्वी इतनी ही चमकती दिखाई दे रही है जैसे हमें चांद सितारे चमकते हुए दिखाई देते हैं?
मरने के बाद हम कहाँ जाते हैं? अगर हम मर चुके हैं तो ऐसी वह कौन सी वस्तु थी जो निकलने के बाद हम मिट्टी हो जाते हैं? मरने के बाद वो वस्तु जाते हुए दिखाई क्यों नही देती? क्या हमारी आंखें खराब है? या उस वस्तु को देखने के लिए हमें दूसरी तरह की आँखें चाहिए? अगर हमारा जन्म हुआ है तो उसी घर में क्यों पैदा हुए? या हम उसी देश में क्यों पैदा हुए? यह लोग ही मेरे मां-बाप क्यों हैं?
यही लोग मेरे रिश्तेदार क्यों हैं? अगर अभी हम जी रहे हैं तो इस बात का निर्धारण कौन कर रहा है कि हम कब मरेंगे और अगर हमें मरना ही था तो हमें भेजा ही क्यों गया था? अगर हमें भेजा गया था तो क्या हम वह काम कर चुके हैं, जो करने के लिए भेजा गया था ? उफ्फ प्रश्न बहुत थे पर जवाब नदारद थे।
ये सारी खिचड़ी बचपन की थी। जो कुछ हद तक किताबों ने दूर की, तो कुछ ध्यान ने। मैं यहां उन अचंभित कर देने वाली बातों का जिक्र तो नही कर पाऊँगी जो बचपन से ही मेरे साथ होती थी। क्योंकि वो सब मुझे बड़े होने के बाद या मुझे कहना चाहिए कि सत्संग लेने के बाद ( गुरु कन्हैया नाथ जी की शरण में जाने के बाद) पता चला कि वो सब ध्यान से संबंधित थी जो जन्म से ही मेरे साथ थी।
मेरी जिंदगी की हर तरह की कशमकश को सत्संग लेने के बाद काफी हद तक विराम लगा। अच्छा, मेरे जैसे ढीठ बच्चे को सत्संग की तरफ मोड़ना मुश्किल ही नही नामुमकिन जैसा था, खैर वो भी एक अलग ही कहानी है। हाँ कुछ काम ऐसे जरूर थे जो मैं स्वाभाविक रूप से ही करती थी जैसे सुबह उठने के बाद धरती को चूमना, खाना शुरू करने से पहले एक निवाला सृष्टिरचयिता के लिए निकालना।
जिसके लिए मैंने मम्मी से बहुत साल तक डाँट भी खाई, वो हमेशा कहती कि खाने से पहले ऐसे मरे हुए व्यक्ति के लिए निकालते है। मुझे याद है मैं पांचवी कक्षा में थी और स्कूल से घर आ रही थी और भी बहुत सारे बच्चे थे जो अपने अपने घर जा रहे थे। मैं अपनी मस्ती में चल रही थी कि अचानक सामने से आ रहे एक भगमाधारी साधु ने मुझे रोककर पूछा कि तेरा जन्म क्यों हुआ है।
इससे पहले कि मैं कोई बात करूं वो तेज गति से निकल गए और मैं भी सोचती रही कि ये मेरा ही प्रश्न मुझसे ही क्यों करके चले गए? एक और बात मुझे बहुत अचंभित करती थी, मेरे स्कूल के प्रिंसिपल की पत्नी पूरे स्कूल में से केवल मुझे किसी ना किसी बहाने अपने घर बुलाती और कहती कि तुम भगवान का रूप लगती हो।
मुझे दुनियादारी की चीजें बहुत ज्यादा लुभान्वित नही करती थी। केवल किताबें, खेल-कूद, रोशनी, प्रकृति और अनोखी अजूबे से भरी घटनायें ही मुझे अपनी ओर आकर्षित करती थी। हां, मैं उन बच्चों में से थी जो मेले में जरूर गुम होते थे। इसीलिए मेरे पापा जी मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ते थे ताकि मैं इधर-उधर न जा सकूं। उन्हें हमेशा मेरा बहुत ज्यादा ख़्याल रखना पड़ता था।
मैं बहुत छोटी थी, हाथों की चूड़ियां मुझे बहुत आकर्षित करती थी। मुझे खुश करने के लिए मेरे पापा जी मुझे हर रोज चूडी पहनवाने लेकर जाते और मैं हर रोज उन्हें तोड़ देती ताकि अगले दिन नई पहनने को मिले। मेरे पापा जी भी मेरी हर बात का ध्यान रखते थे, मुझे हर रोज नई चूडी पहनवा देते। ये सिलसिला कब खत्म हुआ, मुझे याद नही, शायद मैं उस वक़्त एक साल की होंगी।
मैं जो काम करती थी उसमें पूरी तरह खो जाती थी। अगर मैं खाना खा रही हूं तो 1 घंटे से पहले ना उठना, ऐसे लगता था जैसे खाने के एक निवाले को 32 बार चबाने का जिम्मा बस मुझे ही दिया गया है। मेरी मम्मी मुझे हमेशा टोकती, बेटा, इतना मत सोचा कर। मेरा ध्यान बंटाने के लिए वो मेरे साथ खेलती या मुझे खेलने के लिए बाहर भेज देती।
बचपन से ही मैं किसी भी बात को लेकर ना तो बहुत ज्यादा खुश होती थी और ना ही दुखी। बस गुस्सा जरूर आता था और लोगों की अजीबोगरीब बातों पर हंसी बहुत आती थी। एक बात और अजीब थी, लोगों की वो बातें मेरे लिए अजीबोगरीब थी जो पूरी दुनिया के लिए सामान्य थी।
बचपन से ही मैं केवल उन्हीं की बातें सुन पाती थी, जिन लोगों की बातें मैं सुनना चाहूँ, समूह में बैठे हुए भी मेरा ध्यान कहीं और ही रहता था। मुझे बस लोगों के मुंह हिलते हुए दिखाई देते थे। मैं अपने मन में ये सोचती कि ये सभी मिलकर अपनी जिंदगी का कीमती वक़्त इन सब बकवास बातों में क्यों व्यर्थ कर रहे हैं। बस, मैं सबकी बातों के बीच में मुस्कुराती रहती थी ताकि किसी को ये पता ना चले कि मैं उनके साथ नही हूँ।
एक बात जो मुझे सबसे ज्यादा हैरान करती थी , वो थी, इस दुनिया में किसी ऐसी एक शक्ति का होना, जिसे भगवान (सृष्टिरचयिता) कहते हैं। जो किसी को भी दिखाई नही देता। पर वो सब जगह है। सभी के कहने पर मैं ये बात तो मान लेती थी कि भगवान है लेकिन मुझे इस बात पर कभी विश्वास नही था।
क्योंकि ये प्रश्न हमेशा ही था कि अगर सबमें भगवान है तो दिखाई क्यों नही दे रहे। मेरी मम्मी और मेरी ना जाने कितनी ही बार इन बातों पर बहस हुई। मैं हमेशा कहती जब तक आपकी ये मूर्तियां खुद मुझसे बात नही करेंगी, तब तक मैं नही मानूँगी। जिस दिन आपके ये भगवान मुझे मिल गए, उस दिन मैं इनकी बहुत पिटाई करूंगी, आप देख लेना। मेरी मम्मी का बस एक ही जवाब होता था: बेटा, तू उल्टे दिमाग की लड़की है।
मुझे बचपन से ही ये जानना था कि मेरा जन्म क्यूँ हुआ है, क्या जरूरत थी मेरी यहां और अगर मुझे धरती पर भेजना ही था तो भारत ही क्यों, विदेश क्यों नहीऔर अगर भारत में हो ही गया तो दिल्ली क्यों नहीं? इसीलिए मैं बचपन से ही सृष्टिरचयिता से नाराज थी। बचपन में ही मूर्तियों वाले भगवान की पिटाई तो नही कर पाई लेकिन सृष्टिरचयिता ना मिलने की एवज में मैंने स्कूल के बहुत लड़कों को पीटा।
लड़को को पीटने की बात मेरी मम्मी तक पहुंच ही जाती थी। लड़के हमेशा मेरे घर शिकायत लेकर आ जाते कि ये हमें अपनी आंखों से डराती है और पिटाई भी करती है। मेरी मम्मी मुझे बहुत गुस्सा करती और पूछती कि मैं क्यों इतना मार-पिटाई करती हूं। मैं हमेशा कहती कि वो लड़के कुछ ना कुछ बुरा करते हैं इसीलिए।
मम्मी दुखी होकर केवल एक ही बात कहती, बेटा, दुनिया बहुत बड़ी है, तू किस-किसको पीट-पीट कर ठीक करेगी, गुस्से में मैं केवल एक ही बात कहती, मैं सबको ठीक कर दूंगी। अगर कोई ऐसे नही मानेगा तो मैं उसे श्राप दे दूंगी। मेरी मम्मी मेरी ऐसी बातें सुनकर बस हंसती रहती थी।
जब तक मैं बड़ी हुई, तब तक भी मैं दुनियादारी से अपरिचित ही थी क्योंकि मुझे दुनिया की बातें समझ नही आती थी। ऐसी एक घटना जिसका जिक्र मैं केवल संक्षिप्त में ही करूंगी। मेरा एक छोटा भाई था। जिसे मैंने इस पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार किया था। मैं मूर्तियों वाले भगवान को मानती तो नही थी लेकिन हर रोज सोने से पहले ये प्रार्थना जरूर करके सोती कि इसे कभी भी, कुछ भी नही होना चाहिए। यहां तक कि मैंने उसकी सलामती के लिए व्रत भी रखे थे।
लेकिन मेरी प्रार्थना अनसुनी करके इन भगवानों ने अपने प्रति मेरी नफरत को और बढा दिया। मैं बारहवीं कक्षा के बाद ही एकदम मूर्ति पूजा के सख्त खिलाफ हो गयी थी। मेरे भाई के जाने के एक महीने बाद भी मेरी मम्मी का रोने का सिलसिला जारी था। मैं ये सब देख कर बहुत गुस्से में थी।
एक दिन मैंने अपनी मम्मी को कहा कि जब आपको पता है कि मरने के बाद सब उस भगवान के पास चले जाते हैं और वापिस नही आते। फिर आप क्यों रो रही हैं, वो भी हर वक़्त, हर रोज। जब आपको समझ आ चुका है कि वो जा चुका, आपके रोने से भी वापिस नही आएगा तो शांत हो जाइए ना?
मुझे आज भी याद है मेरी मम्मी ने गुस्से में कहा: “तू यहां से चली जा, तू पत्थर दिल है बस और कुछ नहीं और वो और भी फूट-फूट कर रोने लगीं। मुझे मेरे भाई के जाने का गम शायद मेरी मम्मी से भी ज्यादा था लेकिन मैं रोई नहीं। यह भी सच है कि मैं मेरे भाई की मौत पर 16 साल बाद रोई।
मेरी अजीबोगरीब हरकतों की वजह से मेरी मम्मी मुझे दो नामों से बुलाने लगी, एक भगवानदेई और दूसरा सहजो। वो आमतौर पर मुझे मेरे स्कूल या घर के दोनों ही नामों से कम बुलाती थी। मेरे दिमाग को देखते हुए उन्होंने मुझे कोई भी काम सीखने से कभी भी मना नही किया। एक लड़की होकर भी मुझे लड़को से ज्यादा स्वतंत्रता थी।
मेरा जन्म क्या करने के लिए हुआ है इसको जानने के लिए मैंने संगीत, नृत्य, कुश्ती, ताइक्वांडो, ज्योतिष शास्त्र और ना जाने कितनी विधाओं में उम्र के अलग अलग पड़ाव में पैर फंसाया। पर मैं ये कभी नही जान पायी थी कि मेरा जन्म क्या करने के लिए हुआ है। जिस तरह हिरण कस्तूरी ढूंढने के लिए भागता रहता है, मेरे हालात वही थे।
बस मुझे इतना जरूर पता चल गया था कि मुझे घर में ही बैठे नही रहना है। मुझे नौकरी करनी है ये जरूर मुझे पता चला। यही कारण था कि मैं बारहवीं कक्षा के बाद से ही नौकरी करने की बात करने लगी थी। मेरी मम्मी ने अपनी पुरजोर कोशिश कि मुझे घर के काम सिखाने के लिए, लेकिन मेरे स्वभाव की वजह से वो मुझसे यह काम नहीं करवा पाई।
मुझे याद है आज भी वह दिन जब वह मुझे अलग-अलग तरीकों से काम करवाने की सलाह देती थी। उनका एक फेमस डायलॉग था, जो आज भी है कि बेटा काम करने से कोई भी व्यक्ति कमजोर नहीं होता बल्कि उसके शरीर में ताकत आती है इसीलिए काम हमेशा करते रहना चाहिए।
शारीरिक काम हमारे शरीर के लिए बहुत जरूरी है मेरा उनको एक ही जवाब होता था मैं इस पृथ्वी पर यह घर के काम करने नही आई हूँ। घर के काम नौकर करेंगे। मैं कुछ और करूंगी जिसके लिए भगवान ने मुझे इस पृथ्वी पर भेजा है। ऐसी बातें सुनकर मेरी मम्मी हमेशा अवाक रह जाती।
मेरी बहस भरी बातों को सुनकर उन्होंने हार कर मान ही लिया कि मुझे किसी ऐसे काम के लिए भेजा गया है जो आमतौर पर लड़कियां नही करती हैं और उन्होंने कहना बंद कर दिया।मेरी जिंदगी की दौड़ इसी दिशा में थी कि मुझे कुछ करना है। क्या करना है इसका कुछ पता नही था।
मेरे गुरु कन्हैयानाथ जी की कृपादृष्टि से मैं एक काम पर रुक पायी, वो था मीडिया का क्षेत्र, ऐसे लगता था जैसे मेरी आत्मा मिल गयी हो लेकिन कहते हैं ना बुद्धि जब भ्रष्ट होती है तो बहुत कुछ उल्टा होता है या फिर ये कहें कि ऐसा होना लिखा था। मैंने दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स, ज़ी न्यूज़, अग्नि प्रोडक्शन्स, डिजिटल साउंड स्टूडियो और फ्रीलांसिंग का जी भर कर काम किया।
किसी के नकारात्मक विचारो को मैंने शायद अपने दिल पर ले लिया जिसके कारण सी एन एन, आई बी एन 7 और सब टी.वी. जैसे चैनल को ठुकरा दिया। लेकिन अगर उस वक़्त मैंने अपने दिल की बात सुनी होती तो शायद आज ज़िन्दगी कुछ और होती और मेरी आत्मा इतनी परेशान न रहती।
खैर हम बात करते हैं, उस इत्तेफ़ाक़ की, जहां से कहानी की शुरुआत हुई थी। मैं शादी करने के सख्त खिलाफ थी, इसीलिए शायद सृष्टिरचयिता ने अलग अलग प्रकार के इत्तेफाक, मायावी जादुओं और इस दुनिया के लड़ाई-झगड़ो के खेलों में मेरी शादी करवाई। कमाल की बात ये है कि ये सिर्फ मैं ही जानती थी और कोई नही और शायद मेरे गुरु कन्हैया नाथ जी भी।
इतना सब हो रहा था तो मैंने भी अपने मम्मी पापा को शादी के लिए मना लिया और क्योंकि उनकी नजरों में मेरी ही इच्छा सर्वोपरि थी, तो मेरी शादी हो गयी। मेरा मानना यही था कि अगर मेरी शादी हो और अगर बच्चा हो तो पहला बच्चा, लड़की ही हो क्योंकि लड़कों से मुझे बहुत ज्यादा प्यार नही था।
मैं प्रेगनेंसी के समय बहुत शर्मिंदा रहती थी इसीलिए अपने घर जाने से भी बचती थी। मेरे घर ना जाने के बावजूद भी मेरे पापा जी ने पहले ही बता दिया था कि लड़की होगी और वो भी 20 दिसम्बर को। मैं खुश थी, घर में बेटी आने से और वो भी मेरी ही जन्म तारीख को। अब बच्चा घर में आया है तो उसका नाम भी रखना था।
मैं अपने मन में ओजस्विनी नाम सोच चुकी थी। घर परिवार के सभी लोग अपने-अपने हिसाब से नाम सोच चुके थे। सबसे हैरान करने वाला नाम जो था वो था मेरे पति के गुरुजी द्वारा दिया गया मेरी बेटी का नाम, वो था, ” सहजो “उफ्फ जिस नाम को सुन सुनकर मैं बड़ी हुई, वही नाम मेरी बेटी का, ये बात बस बहुत प्यारी नही लगी।
गुरुओं की किसी भी बात या शब्द का अनादर करना, मैने अपने गुरु जी से सीखा नही था। वो हमेशा यही कहते : गुरु तो गुरु ही होते हैं, उनका हमेशा आदर करना चाहिए। आदर तो मैं करती ही थी, बस पता नही क्यों नाम नही रख पाई। सुन कर अच्छा सा नही लगता था। बेटी के होने के तकरीबन 10 महीनों बाद मैं अपने आश्रम जा पायी।
तत्कालीन गुरु ईश्वर नाथ जी हमें देख कर बहुत खुश थे। बहुत ज्यादा देर तो नही रुक पायी लेकिन जब हम वापिस जा रहे थे तो मेरी बेटी ने खुद गुरु जी की तरफ देख कर, अपना हाथ उठा कर उनको बाय किया और मेरे गुरु जी ने भी। ये देखकर मैं हैरान भी हुई और खुश भी। गुरु जी ने कहा कि बड़ी होने के बाद इसे ठंड ही अच्छी लगेगी, गर्मी नही।
मेरी बेटी की दूसरी मुलाकात मेरे गुरु जी ईश्वरनाथ जी से जब भी हुई, उम्र तो याद नही लेकिन जब भी हुई उन्होंने उसका नाम पूछा, मैंने कहा कि मेरे पति के गुरु जी ने इसका नाम सहजो रखा है जो मैं रख नही पायी इसीलिए मैंने इसका नाम प्रिशा रखा है। मेरे गुरु जी ईश्वरनाथ जी ने कहा कि सहजो एक बहुत बड़ी संत हुई है उन्होंने इस लहजे में कहा जैसे कि मुझे वो नाम रख देना चाहिए था। अव्वल तो मुझे मालूम ही नही था कि सहजो कोई संत हुई है नही तो शायद?
2018 की बात है, एक बार मैं अपने घर गयी हुई थी, मेरी बेटी और बेटा दोनों मेरे साथ थे। पड़ोस की एक आंटी ने मेरी बेटी का नाम पूछा, मैंने बताया कि मेरी बेटी का नाम प्रिशा है तो उन्होंने इसका मतलब पूछा, मैंने कहा भगवान का दिया हुआ गिफ्ट या तोहफ़ा। तभी मेरी मम्मी ने मुझे आवाज़ लगाई, “भगवानदेई अंदर आकर लड्डू के लिए पपीता काट दे या फिर जो ये मांग रही है वो पूछ ले।
उस दिन मैं किस्मत के इस इत्तेफाक या यूं कहूं कि मज़ाक पर बहुत हंसी। मैं हंस हंस कर पागल हुए जा रही थी। मेरी मम्मी मेरे पागलपन से अच्छी तरह वाकिफ थी इसीलिए उन्होंने पूछा भी नही कि क्या हुआ और न ही मैंने बताया। मुझे दस साल बाद ये समझ में आया कि भगवानदेई का शुद्ध हिंदी रूपांतरण प्रिशा है। मेरा जन्मदिन 20 दिसम्बर का है, मेरी बेटी का भी, मेरा नाम, मेरी मम्मी सहजो बुलाती थी।
ये सब इत्तेफाक था या चमत्कार ये तो मेरे गुरु जी ही जानते हैं क्योंकि ये भी मेरी जिंदगी की चमत्कारिक घटनाओं में से एक है।