असल में मौन क्या है? क्या सिर्फ मुख से शब्दों का उच्चारण समाप्त कर देना मौन है? क्या मन में निरंतर उठती विचारो की तरंगो को ख़तम कर देना मौन है? क्या मौन खामोशी का पर्यायवाची शब्द है? ध्यान के सोपान में मौन सदैव एक प्रमुख और प्रारंभिक प्रक्रिया रही है जिसे उसके मूल स्वरुप में उपलब्ध करने की एक जटिल प्रक्रिया है। कबीर साहेब की एक बानी है –
जो बोले सो हरी कथा
ना तो मौन ही राखे
हरी कथा भी तो शब्द है जिसे हम पवित्र मानते है। मौन अगर एक साधना है तो शब्द तो वंचित होने ही चाहिए। नियंत्रण जब हमारी जिव्हा के संदर्भ में है तो स्वाभाविक है कि शब्द प्रतिबंधित होंगे? तो क्या मौन को एक हठ योग साधना के संदर्भ में समझा जाना चाहिए? साधना किसी अभीष्ट कि प्राप्ति हेतु किया गया अनुष्ठान माना गया है जहां हमारा संकलप साधना के द्वार से चलकर सिद्धि तक पहुँचता है। संकल्प में अहम् के भावना प्रगाढ़ होती है इसलिए संकल्प से सिद्धि के सफर में अहम् के प्रवृति बड़ी प्रबल होती चली जाती है। इस सफर में अगर हमारे अंदर दुर्वासा जैसी क्रोध रूपी मनोवृति अगर पैदा होने लग जाये तो किंचित मात्रा भी संशय नहीं होना चाहिए। यह तर्कसंगत और स्वाभाविक होता है।
हमारा साहित्य ऐसे अनेक ऋषि और मुनियो कि कहानी से भरा पड़ा है जहाँ उन्होंने क्रोध में आकर किसी को कोई श्राप दे दिया हो और जो सिद्ध हो गया हो। इसलिए साधना का मार्ग सदैव जटिल और मुश्किलों से भरा रहता है। हमारे देश में साधना के अनेको अनेक मार्ग तलाश किये है। इसे एक वैज्ञानिक दृश्टिकोण देने कि भी कोशिश कि गयी है। लेकिन क्या कोई भी कैसा भी संकल्प लेकर सिद्धि के सफर पर चलने हेतु पात्र माना गया है? पात्रता को मापने का आध्यात्मिक पैमाना क्या है? यही गूढ़ विषय और इसकी थोड़ी समझ आध्यात्मिक दुराचार और अपराधों को प्रतिदिन पैदा कर रही है?
करेंगे चील का पीछा, जमीन पर बैठ कर के हम
जमीन के एहसान इतने है –
इसे कैसे छोड़ देंगे हम।
ये केवल आग है, समंदर की लहरों से है हम
मत सोचो जला कर खाक कर दोगे –
हवा के रुख मोड़ देंगे हम।
महसूस मर करना, सांसे छोड़ चुके है हम
हवा के रुखसार को छू लो –
तुमसे फिर लौ जोड़ लेंगे हम।